आनंद की तलाश में भटक रहा मनुष्य अज्ञान के प्रभाव में यह भूल जाता है कि वह स्वंय आनंद स्वरुप है,वह स्वंय सुखों की खान है।
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अनायास अचेतन में उठे विचारों का संग्रह ।
विद्युत विभाग में कार्य करते हुए अनुभवों का संग्रह।
तुम लिखते रहनाउनके मुताबिकउनके लिएजिन्हें पसंद हैतुम्हें पढ़ना तुम्हें सुनना।तुम लिखना जरूरअपने लिए भीऔर अपने अंतर्मन सेउपजी कविताओं का एक बाग लगानाजिसमें बैठ तुम मिल सकोपढ़ सको खुद कोगा सको अ
यूँ तो उन दिनोंआज वाले ग़म नही थेफिर भी बहाने बाजी मेंहम किसी से कम नही थेजब भी स्कूल जाने का मननही होता थापेट मे बड़े जोर का दर्द होता थाजिसे देख माँ घबरा जातीऔर मैं स्कूल ना जाऊं इसलिएबाबू जी से टकरा
"प्रेम दिवस" काव्य संग्रह "प्रतीक्षा" से इज़हार-ए-मोहब्बत का होनाउस दिन शायद मुमकिन था,वैलेंटाइन डे अर्थातप्रेम दिवस का दिन था,कई वर्षों की मेहनत का फल। एक कन्या मित्र हमारी थी,जैसे सावन को ब
मैं मीटर हूँ। विद्युत संस्कृति के प्रारंभ में ऊर्जा के संरक्षक और पालनकर्ता परमपिता आदि अभियंता ने मेरी रचना इस उद्देश्य से की,कि वे समाज मे हो रहे विद्युत ऊर्जा के दुरुपयोग और उसकी चोरी पर अंकुश ल
गाँव गिराव में जून की दोपहरी में आम के पेड़ के नीचे संकठा, दामोदर और बिरजू बैठे गप्प हांक रहे हैं। गजोधर भईया का आगमन होता है-ए संकठा कईसा है मतलब एकदम दुपहरी में गर्मी का पूरा आनंद लई रहे हो और
रात छोटी सीप्रियतम के संगबात छोटी सी।बड़ी हो गईरिवाजों की दीवारखड़ी हो गई।बात छोटी सीकलह की वजहजात छोटी सी।हरी हो गईउन्माद की फसलघात होती सी।कड़ी हो गईबदलाव की नईमात छोटी सी।बरी हो गईरोक तिमिर- रथप्रात छोटी सी।
सावन सूना पनघट सूनासूना घर का अंगना । बहना गई तू कहाँ छोड़ के।। दिन चुभते हैं काटों जैसेआग लगाए रैना। बहना गई तू कहाँ छोड़ के।। बचपन के सब खेल खिलौने यादों की फुलवारीखुशियों की छोटी साइकिलपर करती थी तू सवारी । विरह,पीर के पलछिन देकरहमें रुलाए बिधना । बहना गई तू कहाँ छोड़
जीवन है एक कठिन सफ़रतुम पथ की शीतल छाया होअज्ञान के अंधकार मेज्ञान की उज्जवल काया हो,तुम कृपादृष्टि फेरो जिसपेवह अर्जुन सा बन जाता है ।जो पूर्ण समर्पित हो तुममेवह एकलव्य कहलाता है।जब ज्ञान बीज के हृदय ज्योति सेकोई पुष्प चमन मे खिलता है,मत पूछो उस उपवन कोतब कितना सुख मिलता है ।हर सुमन खिल उठे जीवन काय
मै हुक्म पर हुक्म दिए जा रहा थावह श्रम पर श्रम किये जा रहा थाबिना थके बिना रुकेतन्मयता से तल्लीनअदभुत प्रवीनपसीने में डूबासामने रखेजल से भरे घड़े की ओर देखता हैफिर उंगलिया सेमाथे को पोछता हैमाथे से टूटतीपसीने की बूंदेधरा पर गिरती,बनाती,सूक्ष्म जलाशय क्षण भर कोफिर उतर जातीधरा की सतहसे धरा के हृदय मेंव
जब मैंने कह दिया कि मुझे ये नही पसंद है तो बार बार तुम लोग क्यों जिद करते हो... आकाश ने ग्लास को टेबल पर सरकाते हुए कहा। आज आखिरी दिन है इस हॉस्टल मे फिर पता नही हम लोग कहा होंगे... मिल पाएगे भी या नही... आज तो पी ले हमारे लिए,बस एक पैग..... और इस दिन को यादगार बना दे । द