मै जानू नागर लिखने की कोशिश करता हूँ। कई बुकों व पत्रिकाओ मे लिखा हैं। मै लिखता इस वजह से हूँ कि आम जनता की आवाज के साथ अपनी अभिब्यक्ति को उन्ही के बीच लिखित मे रख सकू।
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डंक की चुभन पानी की तासीर पाने के लिए, छत, घनौची, गली में रखे पानी से भरे ड्रम, गैलन, बोतल, मटका, बाल्टी, जग, ग्लास, कलशा, सुराही टब आदि। मौसम की गर्म हवा, हरी कोपले वाली टहनियों से टकरा कर पत्तियों
काया बचपन, घुटवन चलय। चलए सीना तान, जवानी। झुक जाए, बुढ़ापा जात। ये सब, सुख दुःख के साथी। यह सब मन ह्रदय बसे। जानू, ये उमरियां बीती जाय...
झगड़ा ख़त्म। रातों की नींद में दखल देना चारों की आदत थी।गली के दोनो छोर में उनके घर अभी भी है। शैम्पी और कल्लो पूर्व दिशा संभालते, पश्चिम दिशा टफी और जुल्फी वह सब घर में सोते खाते रहते खेलते। इन चा
ये कैसा मौसम है! मच्छरों की धुन संग बदन में सुई चुभोते, घर में पंखा चलता। ला तूफान बवंडर से, झुका पेड़ो को झटपट रंग बदलते,आंख गर्म, गाल रूखे, होठ सूखे कर जाते। मन में प्यास बढ़ाकर, तन को ढीला कर ज
एक साथ खाने का वक्त कहां? आधुनिकता के दौर में वास्तविकता गायब होती जा रही है। कमआमदनी में जीने वाले लोग अपना ज्यादा समय जुगड़ में ही निकाल देते है। न ही जुगाड काम आता है और न ही वह आधुनिकता का भरपूर
शब्द जलते नही। हाड़ कपाती ठंड, कोहरे की चादर ओढ़े प्रकृति, कंबल में लिपटा बुढ़ापा, टोपे से कान छिपाता बचपन, पतले साल में लिपटी महिला, मोटी जैकेट पहने पुरुष, सिगरेट से खींचा गया धुआं युवा के लबों को स
हाथों की सिलवटे शर्दी से कापते हाथ। दियासलाई को थामे हुए। दियासलाई से सीका निकाल कर, उसमे रगड़ते हुए एक हल्की लौ के साथ कागज में आग लगा दी। इस कागज में छपे शब्द जलने लगे।अब उसे बिना छूए पढ़ सकते थे।
छुपा-छुपा सा है। सुबह के समय पूरा सावदा कोहरे की चादर लिपटा हुआ। न स्कूल दिख रहा था। न बस्ती दिख रही थी। बस कोहरे में झिरफता हिमपात जिससे गली सड़क की धूल बैठ गई है। काली सड़के हिमात से कौआ स्नान कर च
कौन नहीं अकेला?कौन नहीं अकेला? अकेले आए थे, अकेले जाओगे। ये तो रिश्ते है, जन्म में दादी सूप धरे। मरने के बाद, रास्ते भर चार कंधे धरे। कब्रिस्तान, गंगा और शमशान तक। नाम है तो भीड़, काम किया तो न
नित नंदन, घिस चंदन, माथे तिलक लगाओं। हो घर आंगन बड़ा, ता पें, तुलसी वृक्ष लगाओ। मन मंदिर जे बसे, ह्रदय ताकि अलख जलाओं। कर मात पिता सेवा जग में, उनका नाम बढ़ाओ। कर स्नान हर की पौड़ी में, दर्शन मनसा